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प्र वो॑ भ्रियन्त॒ इन्द॑वो मत्स॒रा मा॑दयि॒ष्णवः॑। द्र॒प्सा मध्व॑श्चमू॒षदः॑॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

pra vo bhriyanta indavo matsarā mādayiṣṇavaḥ | drapsā madhvaś camūṣadaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

प्र। वः॒। भ्रि॒य॒न्ते॒। इन्द॑वः। म॒त्स॒राः। मा॒द॒यि॒ष्णवः॑। द्र॒प्साः। मध्वः॑। च॒मू॒ऽसदः॑॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:14» मन्त्र:4 | अष्टक:1» अध्याय:1» वर्ग:26» मन्त्र:4 | मण्डल:1» अनुवाक:4» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

उक्त पदार्थ इस प्रकार संयुक्त किये हुए किस-किस कार्य को सिद्ध करते हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है-

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जैसे मैंने धारण किये, पूर्व मन्त्र में इन्द्र आदि पदार्थ कह आये हैं, उन्हीं से (मध्वः) मधुर गुणवाले (मत्सराः) जिनसे उत्तम आनन्द को प्राप्त होते हैं (मादयिष्णवः) आनन्द के निमित्त (द्रप्साः) जिन से बल अर्थात् सेना के लोग अच्छी प्रकार आनन्द को प्राप्त होते और (चमूषदः) जिनसे विकट शत्रुओं की सेनाओं में स्थिर होते हैं, उन (इन्दवः) रसवाले सोम आदि ओषधियों के समूहों को (वः) तुम लोगों के लिये (भ्रियन्ते) अच्छी प्रकार धारण कर रक्खे हैं, वैसे तुम लोग भी मेरे लिये इन पदार्थों को धारण करो॥४॥
भावार्थभाषाः - ईश्वर सब मनुष्यों के प्रति कहता है कि जो मेरे रचे हुए पहिले मन्त्र में प्रकाशित किये बिजुली आदि पदार्थों से ये सब पदार्थ धारण करके मैंने पुष्ट किये हैं, तथा जो मनुष्य इनसे वैद्यक वा शिल्पशास्त्रों की रीति से उत्तम रस के उत्पादन और शिल्प कार्य्यों की सिद्धि के साथ उत्तम सेना के सम्पादन होने से रोगों का नाश तथा विजय की प्राप्ति करते हैं, वे लोग नाना प्रकार के सुख भोगते हैं॥४॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

एवं सम्प्रयोजिता एते किंहेतुका भवन्तीत्युपदिश्यते।

अन्वय:

हे मनुष्याः ! यथा मया वो युष्मभ्यं पूर्वमन्त्रोक्तैरिन्द्राभिरेव मध्वो मत्सरा मादयिष्णवो द्रप्साश्चमूषद इन्दवः प्रभ्रियन्ते प्रकृष्टतया ध्रियन्ते तथा युष्माभिरपि मदर्थमेते सम्यग्धार्य्याः॥४॥

पदार्थान्वयभाषाः - (प्र) प्रकृष्टार्थे (वः) युष्मभ्यम् (भ्रियन्ते) ध्रियन्ते (इन्दवः) रसवन्तः सोमाद्यौषधिगणाः (मत्सराः) माद्यन्ति हर्षन्ति यैस्ते। अत्र कृधूमदिभ्यः कित्। (उणा०३.७३) अनेन मदेः सरन् प्रत्ययः। (मादयिष्णवः) हर्षनिमित्ताः। अत्र णेश्छन्दसि। (अष्टा०३.२.१३७) अनेन ण्यन्तान्मदेरिष्णुच् प्रत्ययः। (द्रप्साः) दृप्यन्ति संहृष्यन्ते बलानि सैन्यानि वा यैस्ते। अत्र दृप हर्षणमोहनयोः इत्यस्माद्बाहुलकात्करणकारक औणादिकः सः प्रत्ययः। (मध्वः) मधुरगुणवन्तः (चमूषदः) ये चमूषु सेनासु सीदन्ति ते अत्र कृतो बहुलम् इति वार्त्तिकमाश्रित्य सत्सूद्विष० (अष्टा०३.२.६१) अनेन करणे क्विप्। कृषिचमितनि० (उणा०१.८१) अनेन चमूशब्दश्च सिद्धः। चमन्त्यदन्ति विनाशयन्ति शत्रुबलानि याभिस्ताश्चम्वः॥४॥
भावार्थभाषाः - ईश्वरोऽभिवदति-मया धारितैर्मद्रचितैः पूर्वमन्त्रप्रतिपादितैर्विद्युदादिभिर्ये सर्वे पदार्थाः पोष्यन्ते ये तेभ्यो वैद्यकशिल्पशास्त्ररीत्या प्रकृष्टरसोत्पादनेन शिल्पकार्य्यसिद्ध्योत्तमसेनासम्पादनाद् रोगनाशविजयप्राप्तिं कुर्वन्ति तैर्विविधम् आनन्दं भुञ्जते इति॥४॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - ईश्वर सर्व माणसांना सांगतो - मी पहिल्या मंत्रात प्रकट केलेल्या विद्युत इत्यादी पदार्थांपासून हे सर्व पदार्थ धारण करून पुष्ट केलेले आहेत. जी माणसे त्यांच्यापासून वैद्यक किंवा शिल्पशास्त्राच्या रीतीने उत्तम रसाचे उत्पादन करतात व शिल्पकार्याची सिद्धी करतात, तसेच उत्तम सेनेचे संपादन करतात, त्यामुळे रोगांचा नाश होतो व विजय प्राप्त होतो व ते लोक विविध प्रकारचे सुख भोगतात. ॥ ४ ॥